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"कुम्भ-कथा : वराह अवतार व जलप्रलय"

एक रुचिर तथ्य है कि अवतारवाद के प्राथमिक तीनों अवतार एक जलमग्न पृथ्वी की मान्यता पर चलते हैं, जो पृथ्वी की आदिम स्थिति की भौगोलिक वैज्ञानिक गवेषणा के सर्वथा अनुरूप है। इस लगभग सवा चार अरब साल पुरानी पृथ्वी पर तीन से चार अरब वर्ष पूर्व महासागर इतना विशाल था कि पूरी पृथ्वी जलमग्न थी। तब पृथ्वी पर जल की मात्रा आज के महासागरों से दोगुनी तक थी।

वराह का सामान्य अर्थ वनशूकर होता या माना जाता रहा है। इसके लिए प्रयुक्त अंग्रेजी का बोर शब्द वराह शब्द का ही उच्चारण है। परन्तु संस्कृत में यह शब्द अनेक अर्थों का व्यंजक है।

वैदिक काल में अंतर्गत प्रयुक्त शब्दों की व्याख्या के लिए यास्क के निरुक्त के पंचम अध्याय के
प्रथम पाद में 'वराह' शब्द का जो निर्वचन किया गया है, उसमें अन्य अर्थ भी सम्मिलित हैं, जैसे—

१. 'वराहो मेघो भवति वराहार:'। 
मेघ उत्तम या अभीष्ट आहार देने वाला होता है, इसीलिए इसका नाम 'वराह' है ।

२. 'अयाम्पीतरो वराह एतस्मादेव। वृहति मूलानि। वरं वरं मूलं वृह्तीति वा।' 'वराहमिन्द्र एमुषम्'।

उत्तम-उत्तम फल, मूल आदि आहार प्रदान करने वाला होने के कारण पर्वत को भी 'वराह' कहतें है ।

३. ' वरं वरं वृहती मूलानी'। 
उत्तम-उत्तम जड़ों या औषधियों को खोदकर खाने के कारण शूकर 'वराह' कहलाता है.

इनके अतिरिक्त अन्य अर्थ भी रहे हैं, जैसे— मकर, वृषभ, मेघ आदि। वस्तुतः वर शब्द जलवाचक रूप में सर्वाधिक प्रयुक्त था। वर्षा, वारि, वारिधि, वरुण, वारांगना (अप्सरा = अप् अर्थात् जल से उत्पन्न), वारुणी आदि। वरदान शब्द में भी वर शब्द कभी आकाशीय बूँद के रूप, तृषा की तृप्ति के रूप में रहा हो सकता है। वराह शब्द वाराह भी कहा जाता है। यह वराह या वाराह शब्द इसी अर्थ में मेघवाचक बना। वराहमिहिर में वराह शब्द मेघार्थक ही है, जिसका तात्पर्य है, बादलों में या बादलों के लिए सूरज। वर-कन्या पदयुग्म में भी उल्लेखनीय कन्या राशि में कन्या को बहुधा कुम्भ लिए चित्रांकित इसी अर्थ में किया जाता है। संभवतः वारि के देव वरुण के वाहन के रूप में ही वराह को मकर कहा गया। अंग्रेजी के वाटर शब्द के भी वारि से निगमित होने की संभावना है।

प्रश्न उठता है, वराह ही क्यों? अनेक कारण रहे हो सकते हैं—
प्रथम— वनशूकर की प्रकृति है, मूल व मिट्टी को खोदना। इस प्रवृत्ति में वह सर्वाधिक शक्तिशाली प्राणी है। सो पृथ्वी के उद्धार के लिए वह बेहतर प्रतीक था। वराही कंद का नामकरण इसी प्रकार हुआ है। 
द्वितीय— वराह अनूपक्षेत्रीय पशु है। अर्थात् वह किसी पोखरी या जलपंकमय क्षेत्र के आसपास ही रहता है। इसलिए भी जल से उद्धार के लिए उचित प्रतीक बना हो। वर शब्द भी सर्वाधिक जलवाचक भाव लिए हुए है। 
तृतीय— दरअसल शूकर धरती के सर्वाधिक बुद्धिमान स्तनपायी जीवों में है। स्थलीय जीवों में केवल चिंपांजी व हाथी ही उससे बेहतर हैं।
चतुर्थ— तंत्र में वाराही शक्ति की मान्यता समानांतर रूप में, किंवा पूर्व रूप से भी प्रचलित रही है, सो वराह को जोड़ना असंगत न था। वन में वराह की अधिकांश व्यवस्था मातृसत्तात्मक रहती है, सो वराह का जुड़ाव होना असंभव नहीं था। 
पंचम— वराह मूर्तियों के साथ यदा-कदा बुद्ध का चित्रण भी मिल जाता है। कारण विदित नहीं। वह सूकरमद्दव से तो आया नहीं दिखता। परन्तु ऐसा परिलक्षित होता है कि वनशूकर किसी समय शक्ति व शान्ति के उस मिश्रित रूप में देखा जाता था, जैसे वृषभ व गज को देखा गया।

उल्लेखनीय है कि आज जिन जीवों को हम हेय दृष्टि से देखते हैं, किसी समय में वे श्रेष्ठ रहे हो सकते हैं। बकरी-बकरे के प्रति आज श्रद्धा नहीं दिखती, किन्तु किसी समय ब्रह्मा को जब अज कहा जाता था, तो इस अज का भी जुड़ाव हो रहता था। पूजा में आरती में बकरी का घृत "आज्य" श्रेष्ठ माना जाता था। महिषी अर्थात् भैंस शब्द रानी के लिए भी प्रयुक्त होता था। गर्दभ के लिए प्रयुक्त रासभ व रैक्व क्रमशः कभी ब्रह्म व ऋषि के भी नाम रहे हैं। आज कुत्ते घरों में जितने प्रेम से रखे जाते हैं, वैसे प्राचीन काल में नहीं रखे गए।

प्रश्न उठता है कि कुम्भ का समुद्र-मन्थन से संबंध भले हो, परन्तु वराह अवतार कहाँ से प्रासंगिक हुआ। वस्तुतः यहाँ प्रासंगिकता तो केवल कूर्म अवतार की थी, परन्तु मीन व वराह अवतार के जुड़े बिना कूर्म की प्रासंगिकता व सार्थकता समुचित रूप से स्थापित नहीं होती। वैसे यह बस संयोग है कि वटवृक्ष के शाखामूल को वरोरुह कहा जाता है और वह भी वट के वर रूपांतर से बना है। लोक में वरोरुह आज भी वरोह कहलाता है, जो समध्वनि शब्द है। तो वराह किसी वरोह के बहाने यदि प्रयाग के अक्षय वटवृक्ष की स्मृति दिला दे, तो कोई विस्मय नहीं।

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